maharshi dadhichi ma dadhimati...
महर्षि दधीचि महान तपस्वी और ज्ञानी थे । वे नैमिषारण्य के घने वन में आश्रम बनाकर रहते थे । ज्ञान के अक्षय भण्डार के साथ ही महर्षि के पास दान, दया और त्याग के रूप में भी अमूल्य सम्पदा थी । महर्षि अपने आश्रम में शान्तिपूर्वक तप करते थे किन्तु देवासुर संग्राम के बारे में सोचकर कभी-कभी उद्विन हो जाते थे । उनकी इच्छा थी कि शीघ्र ही देव और दानव युद्ध से विमुख हो जायें और प्रेम भाव से मिल-जुलकर रहें किन्तु असुरों का आतंक बढ़ता ही जा रहा था । देवगण, त्रस्त और पीड़ित थे । देवों को युद्ध में सफलता का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था | हताश देवगण, देवराज इन्द्र के पास गये। उन्होंने ब्रह्मा जी से कोई उपाय पूछने के लिये इन्द्र से आग्रह किया । इन्द्र मान गये और उन्होंने ब्रह्मा के पास जाकर उन्हें अपनी चिन्ता कह सुनाई । ब्रह्मा बोले - देवराज इन्द्र, त्याग और तपस्या के बल पर किसी भी कार्य में सफलता पाई जा सकती है । त्याग के बिना संसार में सफलता पाना दुष्कर है । इस समय पृथ्वी पर महर्षि दधीचि हैं । योग बल से उन्होंने अपनी अस्थियाँ बहुत मजबूत बना ली हैं । उनकी अस्थियों से बना हुआ अस्त्र वज्र होगा । यदि देवता युद्ध में उसका प्रयोग करें तो दानवों की पराजय निश्चित है । देवराज इन्द्र ने आश्चर्य से पूछा - किन्तु भगवन ! वे तो जीवित हैं । उनकी अस्थियाँ हमें कैसे मिल सकती हैं ? ब्रह्माजी ने कहा - इस बात का उत्तर महर्षि दधीचि ही दे सकते हैं । देवराज इन्द्र चिन्ता में पड़ गये ।